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जो झुक के मिलते थे जलसों में मेहरबाँ की तरह | शाही शायरी
jo jhuk ke milte the jalson mein mehrban ki tarah

ग़ज़ल

जो झुक के मिलते थे जलसों में मेहरबाँ की तरह

बदनाम नज़र

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जो झुक के मिलते थे जलसों में मेहरबाँ की तरह
हुए हैं सर पे मुसल्लत वो आसमाँ की तरह

मुझे जो खोलो तो साहिल क़रीब कर दूँगा
समुंदरों में मैं रहता हूँ बादबाँ की तरह

तुम्हारे शहर के जबरी निज़ाम में कुछ लोग
कभी हँसे भी तो आवाज़ थी फ़ुग़ाँ की तरह

है तेज़ धूप सफ़र लम्बा पर तुम्हारी याद
है एक साया मिरे सर पे साएबाँ की तरह

न कोई पत्ता हरा है न कोई फूल खिला
बहार भी मिरे घर आई है ख़िज़ाँ की तरह

न साफ़ ज़ेहन न चेहरे के ख़ाल-ओ-ख़त रौशन
फ़ज़ाओं में है हर इक शय धुआँ धुआँ की तरह

जहाँ भी जाऊँ मैं वो दश्त हो कि दरिया हो
दुआएँ माँ की चलें साथ पासबाँ की तरह

'नज़र' के नाम का इक शख़्स कुछ जुनूनी सा
अकेला दश्त में चलता है कारवाँ की तरह