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जो हो सके तो मिरे दिल अब इक वो क़िस्सा भी | शाही शायरी
jo ho sake to mere dil ab ek wo qissa bhi

ग़ज़ल

जो हो सके तो मिरे दिल अब इक वो क़िस्सा भी

मजीद अमजद

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जो हो सके तो मिरे दिल अब इक वो क़िस्सा भी
ज़रा सुना कि है कुछ ज़िक्र जिस में तेरा भी

कभी सफ़र ही सफ़र में जो उम्र-ए-रफ़्ता की सम्त
पलट के देखा तो उड़ती थी गर्द-ए-फ़र्दा भी

बड़े सलीक़े से दुनिया ने मेरे दिल को दिए
वो घाव जिन में था सच्चाइयों का चरका भी

किसी की रूह से था रब्त और अपने हिस्से में थी
वो बे-कली जो है मौज-ए-ज़माँ का हिस्सा भी

ये आँखें हँसती वफ़ाएँ ये पलकें झुकते ख़ुलूस
कुछ इस से बढ़ के किसी ने किसी को समझा भी

ये रस्म हासिल-ए-दुनिया है इक ये रस्म-ए-सुलूक
हज़ार इस में सही नफ़रतों का ईमा भी

दिलों की आँच से था बर्फ़ की सिलों पे कभी
सियाह साँसों में लुथड़ा हुआ पसीना भी

मुझे ढकी-छुपी इन बूझी उलझनों से मिला
जची-तुली हुई इक साँस का भरोसा भी

कभी कभी इन्ही अल्हड़ हवाओं में 'अमजद'
सुना है दूर के इक देस का संदेसा भी