EN اردو
जो हो सके तो कभी इतनी मेहरबानी कर | शाही शायरी
jo ho sake to kabhi itni mehrbani kar

ग़ज़ल

जो हो सके तो कभी इतनी मेहरबानी कर

इक़बाल अासिफ़

;

जो हो सके तो कभी इतनी मेहरबानी कर
उड़ा के ख़ाक मिरी मुझ को आसमानी कर

फिर उस के बा'द ख़ुदा जाने कब मयस्सर हों
ये चंद लम्हे मोहब्बत के जावेदानी कर

ब-ज़ोर-ए-तेग़ हुकूमत किया नहीं करते
जो हो सके तो दिलों पर भी हुक्मरानी कर

ऐ रौशनी के पयम्बर कि ऐ नक़ीब-ए-नूर
लहू से अपने चराग़ों की पासबानी कर

मैं आइना हूँ न उतरे कहीं तिरा चेहरा
न अपने आप पे इतरा न लन-तरानी कर

मैं चल पड़ा हूँ क़दम से क़दम मिला मेरे
रफ़ाक़तों के सफ़र में न आना-कानी कर

हमारे लम्स से पड़ती है जान मुर्दों में
हमारे हाथ पे बैअ'त ऐ ज़िंदगानी कर

न मस्लहत की तराज़ू में तौल लफ़्ज़ों को
जो दिल कहे वही होंटों से तर्जुमानी कर

न याद कर उन्हें आसिफ़ वो पल जो बीत गए
यहीं पे दर्द-भरी ख़त्म वो कहानी कर