जो हर क़दम पे अंधेरों से लड़ने वाले हैं
हमारे साथ मोहब्बत के वो उजाले हैं
वो जानते हैं जो तारीख़ पढ़ने वाले हैं
हमीं ने गर्दिश-ए-दौराँ के बल निकाले हैं
बनाए फिरते हैं हम ख़ुद को ख़ुश-लिबास मगर
हमारे घर में अभी मकड़ियों के जाले हैं
ख़ुलूस-ओ-रब्त-ओ-मुहब्बत जिन्हें मयस्सर है
वो लोग कौन सी दुनिया के रहने वाले हैं
दयार-ए-ग़ैर में तुम क्यूँ तलाश करते हो
हमारे शहर में क्या अहल-ए-फ़न के लाले हैं
जिन्हें ये अहल-ए-बसीरत समेट लाए थे
वो हादसे किसी आशुफ़्ता सर ने टाले हैं
हज़ार दौर-ए-तरक़्क़ी के बा'द भी 'नुसरत'
क़दम क़दम पे अभी 'मीर' के हवाले हैं

ग़ज़ल
जो हर क़दम पे अंधेरों से लड़ने वाले हैं
नुसरत सिद्दीक़ी