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जो ग़म में जलते रहे उम्र-भर दिया बन कर | शाही शायरी
jo gham mein jalte rahe umr-bhar diya ban kar

ग़ज़ल

जो ग़म में जलते रहे उम्र-भर दिया बन कर

आज़ाद गुलाटी

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जो ग़म में जलते रहे उम्र-भर दिया बन कर
बुझा गई है उन्हें मौत अब हवा बन कर

वो ख़ामुशी जो तिरी बज़्म ने हमें बख़्शी
ख़ला-ए-ज़ेहन में गूँजी है इक सदा बन कर

जो तू ने मुझ को ग़म-ए-ला-ज़वाल बख़्शा था
वो ज़िंदगी में रहा मेरा रहनुमा बन कर

वो जिन के लम्स से तू खिल के फूल बनता था
वो अब भटकते हैं दर पर तिरे सबा बन कर

जब उन की बज़्म से लौटे तो ख़ुद को पहचाना
वहाँ से आए हम 'आज़ाद' क्या से क्या बन कर