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जो फ़क़त शोख़ी-ए-तहरीर भी हो सकती है | शाही शायरी
jo faqat shoKHi-e-tahrir bhi ho sakti hai

ग़ज़ल

जो फ़क़त शोख़ी-ए-तहरीर भी हो सकती है

अख़तर शाहजहाँपुरी

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जो फ़क़त शोख़ी-ए-तहरीर भी हो सकती है
वो मिरे पाँव की ज़ंजीर भी हो सकती है

सिर्फ़ वीराना ही ग़मगीनी का बाइ'स तो नहीं
अहद-ए-माज़ी की वो तस्वीर भी हो सकती है

चश्म-ए-हसरत से जो टपकी है लहू की इक बूँद
सुब्ह-ए-उम्मीद की तनवीर भी हो सकती है

रंज-ओ-ग़म ठोकरें मायूसी घुटन बे-ज़ारी
मेरे ख़्वाबों की ये ता'बीर भी हो सकती है

बद-गुमाँ है तो वही मोरिद-ए-इल्ज़ाम हो क्यूँ
कुछ न कुछ तो मिरी तक़्सीर भी हो सकती है

होश क़ाएम रहें तूफ़ान-ए-हवादिस में अगर
बच निकल जाने की तदबीर भी हो सकती है

तीरगी बख़्त की समझो न उसे तुम 'अख़्तर'
मुल्तफ़ित ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर भी हो सकती है