जो दुहाई दे रहा है कोई सौदाई न हो
अपने ही घर में किसी ने आग दहकाई न हो
रास्ते में इस से पहले कब था इतना अज़दहाम
जो तमाशा बन रहा है वो तमाशाई न हो
जो मिला नज़रें चुरा कर चल दिया अब क्या कहें
शहर में रह कर कभी इतनी शनासाई न हो
अपनी ही आवाज़ पर चौंके हैं हम तो बार बार
ऐ रफ़ीक़ो बज़्म में इतनी भी तन्हाई न हो
मैं शुआ-ए-महर का मारा सही लेकिन यहाँ
कौन है यारो जो इस सूरज का शैदाई न हो
गुंग भी हैं देख कर बदले हुए मंज़र यहाँ
और ऐसा भी नहीं हम में कि गोयाई न हो
मैं तो अपनी ज़ात का इक रेज़ा-ए-ग़ुम-गश्ता हूँ
वो मुझे ढूँडेगा क्या जो मेरा शैदाई न हो
ग़ज़ल
जो दुहाई दे रहा है कोई सौदाई न हो
अमीन राहत चुग़ताई