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जो दिल पर बोझ है यारब ज़रा भी कम नहीं होता | शाही शायरी
jo dil par bojh hai yarab zara bhi kam nahin hota

ग़ज़ल

जो दिल पर बोझ है यारब ज़रा भी कम नहीं होता

चमन भटनागर

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जो दिल पर बोझ है यारब ज़रा भी कम नहीं होता
ज़माना ग़म तो देता है शरीक-ए-ग़म नहीं होता

ख़ज़ाना इल्म का है ला-ज़वाल ऐसा ज़माने में
जिसे बाँटो तो बढ़ता है प हरगिज़ कम नहीं होता

हमारा सर बना है दोस्तो इक ख़ास मिट्टी से
किसी ज़ालिम की चौखट पर कभी ये ख़म नहीं होता

ज़हे-क़िस्मत ख़ुदा ने ज़ब्त की ताक़त मुझे दी है
हक़ीक़त में मिरा अश्कों से दामन नम नहीं होता

हज़ारों आफ़तें हम ने सहीं महबूब की ख़ातिर
मगर ईसार का जज़्बा ज़रा भी कम नहीं होता

पहुँच सकता नहीं वो अपनी मंज़िल पे किसी सूरत
वो बद-क़िस्मत मुसाफ़िर जिस में कुछ दम-ख़म नहीं होता

ज़रा सी बात पर आमादा हो जाए जो लड़ने पर
पुजारी वो अहिंसा का चमन गौतम नहीं होता