जो दिल की बारगाह में तजल्लियाँ दिखा गया
मिरे हवास-ओ-होश पर सुरूर बन के छा गया
तिरे बग़ैर ज़िंदगी गुज़ारना मुहाल था
मगर ये क़ल्ब-ए-ना-तवाँ ये बोझ भी उठा गया
जो शख़्स मेरी ज़ात में बसा हुआ था मुद्दतों
न जाने मुझ से रूठ कर वो अब कहाँ चला गया
फिर आज इक हवा-ए-ग़म उदास दिल को कर गई
ख़याल तेरी याद का नज़र को फिर बुझा गया
कभी क़दम जो थक गए ग़मों की रहगुज़ार में
तिरी नज़र का नूर था जो हौसले बढ़ा गया

ग़ज़ल
जो दिल की बारगाह में तजल्लियाँ दिखा गया
सिद्दीक़ा शबनम