जो चाहूँ भी तो अब ख़ुद को बदल सकता नहीं हूँ
समुंदर हूँ किनारों से निकल सकता नहीं हूँ
मैं यख़-बस्ता फ़ज़ाओं में असीर-ए-ज़िंदगी हूँ
तिरी साँसों की गर्मी से पिघल सकता नहीं हूँ
मिरे पाँव के नीचे जो ज़मीं है घूमती है
तो यूँ ऐ आसमाँ मैं भी सँभल सकता नहीं हूँ
ख़ुद अपने दुश्मनों के साथ समझौता है मुमकिन
मैं तेरे दुश्मनों के साथ चल सकता नहीं हूँ
वो पौदा नफ़रतों का है जहाँ चाहे उगा लो
मोहब्बत हूँ मैं हर मिट्टी में फल सकता नहीं हूँ
उन्हें लड़ना पड़ेगा मुझ से जब तक हूँ मैं ज़िंदा
हिसार-ए-दुश्मनाँ से गो निकल सकता नहीं हूँ
खुले हैं रास्ते कितने मिरे रस्ते में 'अज़्मी'
मगर मैं हूँ कि हर साँचे में ढल सकता नहीं हूँ

ग़ज़ल
जो चाहूँ भी तो अब ख़ुद को बदल सकता नहीं हूँ
इस्लाम उज़्मा