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जो भी हम से बन पड़ा करते रहे | शाही शायरी
jo bhi humse ban paDa karte rahe

ग़ज़ल

जो भी हम से बन पड़ा करते रहे

शफ़ीक़ सलीमी

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जो भी हम से बन पड़ा करते रहे
रुत बदलने की दुआ करते रहे

कैसी कैसी चाहतों के थे चराग़
जिन को हम बुर्द-ए-हवा करते रहे

टाँक कर ख़ुश-रंग उम्मीदों के फूल
ख़ुश्क टहनी को हरा करते रहे

रंग ख़ुशबू से अलग होते न थे
लफ़्ज़ मअनी से जुदा करते रहे

जानते थे चापलूसी का हुनर
काम फिर भी दूसरा करते रहे

ख़ौफ़-नगरी के मकीं थे हम 'शफ़ीक़'
फिर भी जज़्बों को सदा करते रहे