जो भी दरून-ए-दिल है वो बाहर न आएगा
अब आगही का ज़हर ज़बाँ पर न आएगा
अब के बिछड़ के उस को निदामत थी इस क़दर
जी चाहता भी हो तो पलट कर न आएगा
यूँ फिर रहा है काँच का पैकर लिए हुए
ग़ाफ़िल को ये गुमाँ है कि पत्थर न आएगा
फिर बो रहा हूँ आज उन्हीं साहिलों पे फूल
फिर जैसे मौज में ये समुंदर न आएगा
मैं जाँ-ब-लब हूँ तर्क-ए-तअल्लुक़ के ज़हर से
वो मुतमइन कि हर्फ़ तो उस पर न आएगा
ग़ज़ल
जो भी दरून-ए-दिल है वो बाहर न आएगा
अहमद फ़राज़