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जो भी दरून-ए-दिल है वो बाहर न आएगा | शाही शायरी
jo bhi darun-e-dil hai wo bahar na aaega

ग़ज़ल

जो भी दरून-ए-दिल है वो बाहर न आएगा

अहमद फ़राज़

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जो भी दरून-ए-दिल है वो बाहर न आएगा
अब आगही का ज़हर ज़बाँ पर न आएगा

अब के बिछड़ के उस को निदामत थी इस क़दर
जी चाहता भी हो तो पलट कर न आएगा

यूँ फिर रहा है काँच का पैकर लिए हुए
ग़ाफ़िल को ये गुमाँ है कि पत्थर न आएगा

फिर बो रहा हूँ आज उन्हीं साहिलों पे फूल
फिर जैसे मौज में ये समुंदर न आएगा

मैं जाँ-ब-लब हूँ तर्क-ए-तअल्लुक़ के ज़हर से
वो मुतमइन कि हर्फ़ तो उस पर न आएगा