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जो बशर हर वक़्त महव-ए-ज़ात है | शाही शायरी
jo bashar har waqt mahw-e-zat hai

ग़ज़ल

जो बशर हर वक़्त महव-ए-ज़ात है

पंडित जवाहर नाथ साक़ी

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जो बशर हर वक़्त महव-ए-ज़ात है
क़ल्ब उस का लम-यज़ल मिरआत है

जिस को शग़्ल-ए-नफ़ी-ओ-इस्बात है
वो ही साहिब-दिल है ख़ुश-औक़ात है

सहव होता है कभी होता है महव
क्या मज़े का अपना ये दिन-रात है

ना-मुराद-ए-दहर फ़र्द-ए-दहर है
वो जहाँ में क़ाज़ी-उल-हाजात है

हों सिफ़ात-ए-नफ़्स जिस के क़ल्ब-ए-रूह
वो बशर कब है वो हुस्न-ए-ज़ात है

साहब-ए-निस्बत का रुत्बा है बुलंद
गरचे ज़ाहिद साहबुद्दा'वात है

बस्त में जब क़ब्ज़ का दौरा हुआ
है क़यामत नज़्अ' की सकरात है

वो तअय्युन ही के फंदे में रहा
जो यहाँ पाबंद-ए-महसूसात है

मुग़्बचो हो जाओ तुम भी बे-नियाज़
पीर-ए-मुग़ तो क़िबला-ए-हाजात है

हम भी हैं 'साक़ी' तलाश-ए-यार में
वो जो मिल जाए तो फिर क्या बात है