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जो ब-ज़ाहिर सहर-आसार नज़र आते हैं | शाही शायरी
jo ba-zahir sahar-asar nazar aate hain

ग़ज़ल

जो ब-ज़ाहिर सहर-आसार नज़र आते हैं

माहिर अब्दुल हई

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जो ब-ज़ाहिर सहर-आसार नज़र आते हैं
वो भी अंदर से शब-ए-तार नज़र आते हैं

कीजिए किस से यहाँ क़द्र-ए-हुनर की उम्मीद
अब वो दरबार न दुर-बार नज़र आते हैं

कम से कम अपने गरेबाँ ही के पुर्ज़े करते
हाथ पर हाथ धरे यार नज़र आते हैं

शहर-दर-शहर मकानों में अंधेरा है मगर
जगमगाते हुए बाज़ार नज़र आते हैं

कौन आवाज़ उठाएगा हमारे हक़ में
सब तिरे हाशिया-बरदार नज़र आते हैं

ये भी मुमकिन है कि उड़ जाएँ तो लौटें न कभी
जितने बच्चे हैं वो पर-दार नज़र आते हैं

कितनी दिलकश है ये उम्मीद की रंग-आमेज़ी
संग-दिल लोग भी दिलदार नज़र आते हैं

वो रहे होंगे नज़ाकत में कभी शाख़-ए-गुलाब
अब तो जब देखिए तलवार नज़र आते हैं

किस की आमद है ग़रीबों के गली-कूचे में
उजले उजले दर-ओ-दीवार नज़र आते हैं

जिन के दीदार को फ़िरदौस-ए-तमाशा कहिए
ज़िंदगी में कहीं इक बार नज़र आते हैं

शोख़ी-ए-नक़्श-ए-क़दम है कि गुलाबों की क़तार
रास्ते सब गुल-ओ-गुलज़ार नज़र आते हैं

जो हर इक बंद से आज़ाद हैं वो भी 'माहिर'
अपनी ख़सलत के गिरफ़्तार नज़र आते हैं