जो अश्क बरसा रहे हैं साहिब
ये राएगाँ जा रहे हैं साहिब
यही तग़य्युर तो ज़िंदगी है
अबस घुले जा रहे हैं साहिब
जो हो गया है सो हो गया है
फ़ुज़ूल पछता रहे हैं साहिब
ये सिर्फ़ गिनती के चार दिन हैं
बड़े मज़े आ रहे हैं साहिब
अभी तो ये ख़ाक हो रहेगा
जो जिस्म चमका रहे हैं साहिब
कोई इरादा न कोई जादा
कहाँ किधर जा रहे हैं साहिब
इधर ज़रा ग़ौर से तो देखें
ये फूल मुरझा रहे हैं साहिब
जहाँ की नायाफ़्त के सबब में
जहाँ का ग़म खा रहे हैं साहिब
ये मैं नहीं हूँ ये मेरा दिल है
ये किस को समझा रहे हैं साहिब
सुकून की नींद सोइएगा
वो दिन भी बस आ रहे हैं साहिब
जो आप के हिज्र में मिले हैं
ये दिन गिने जा रहे हैं साहिब
बस अब नहीं कुछ भी याद मुझ को
बस आप याद आ रहे हैं साहिब
ग़ज़ल
जो अश्क बरसा रहे हैं साहिब
अजमल सिराज