जो अपने सर पे सर-ए-शाख़-ए-आशियाँ गुज़री
किसी के सर पे क़फ़स में भी वो कहाँ गुज़री
उसी की याद है महताब-ए-शाम-हा-ए-फ़िराक़
वो एक शब कि सर-ए-कू-ए-मह-वशाँ गुज़री
जहाँ में शौक़ कभी राएगाँ नहीं जाता
मैं क्यूँ कहूँ कि मिरी उम्र राएगाँ गुज़री
जबीन-ए-शौक़ हमारी गली गली में झुकी
कि हर गली से तिरी ख़ाक-ए-आस्ताँ गुज़री
ग़ज़ल
जो अपने सर पे सर-ए-शाख़-ए-आशियाँ गुज़री
शरीफ़ कुंजाही