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जो अपने सर पे सर-ए-शाख़-ए-आशियाँ गुज़री | शाही शायरी
jo apne sar pe sar-e-shaKH-e-ashiyan guzri

ग़ज़ल

जो अपने सर पे सर-ए-शाख़-ए-आशियाँ गुज़री

शरीफ़ कुंजाही

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जो अपने सर पे सर-ए-शाख़-ए-आशियाँ गुज़री
किसी के सर पे क़फ़स में भी वो कहाँ गुज़री

उसी की याद है महताब-ए-शाम-हा-ए-फ़िराक़
वो एक शब कि सर-ए-कू-ए-मह-वशाँ गुज़री

जहाँ में शौक़ कभी राएगाँ नहीं जाता
मैं क्यूँ कहूँ कि मिरी उम्र राएगाँ गुज़री

जबीन-ए-शौक़ हमारी गली गली में झुकी
कि हर गली से तिरी ख़ाक-ए-आस्ताँ गुज़री