जो आशिक़ हो उसे सहरा में चल जाने से क्या निस्बत
जुज़ अपनी धूल उड़ाना और वीराने से क्या निस्बत
नहीं पहुँचें बुलबुलों की पुख़्तगी को ख़ाम परवाने
जो दाएम सुलगें उन को पल में जल जाने से क्या निस्बत
वो ज़ुल्फ़ों से न गुज़रे बल्कि अपने जी से टल जावे
कहो मेरे दिल-ए-सद-चाक को शाने से क्या निस्बत
ग़ज़ल
जो आशिक़ हो उसे सहरा में चल जाने से क्या निस्बत
वली उज़लत