EN اردو
जितने नग़्मे थे वज्ह-ए-ख़लिश बन गए जितने नाले थे सर्फ़-ए-हवा हो गए | शाही शायरी
jitne naghme the wajh-e-KHalish ban gae jitne nale the sarf-e-hawa ho gae

ग़ज़ल

जितने नग़्मे थे वज्ह-ए-ख़लिश बन गए जितने नाले थे सर्फ़-ए-हवा हो गए

ख़ुर्शीदुल इस्लाम

;

जितने नग़्मे थे वज्ह-ए-ख़लिश बन गए जितने नाले थे सर्फ़-ए-हवा हो गए
हम वही हैं जो कल थे मगर क्या हुआ हम वहीं हैं मगर क्या से क्या हो गए

जिन के दामन तही और ख़ाली थे दिल जिन की जुरअत थी कम और जाँ मुज़्महिल
आस्तानों पे सज्दे वो करते रहे रफ़्ता रफ़्ता हमारे ख़ुदा हो गए

इस ज़माने के जो मीर-ओ-सुल्तान थे नौ-ए-आदम में या'नी जो इंसान थे
दिल से पाई उन्होंने वो नश्व-ओ-नुमा तेरे कूचे के आख़िर गदा हो गए

शोर सीनों में उठ उठ के दबते रहे दिल-जिगर दूर गुर्दों में खपते रहे
हाथ कितने थे याँ जो क़लम हो गए साज़ क्या क्या थे जो बे-सदा हो गए

यार दुनिया के साँचे में ढलते रहे शम्अ' फ़ानूस थे हम पिघलते रहे
अपनी तन्हा-रवी अपना सोज़-ए-दरूँ हम भी दुनिया में इक माजरा हो गए

अब न ख़तरा है दिल में न कोई ख़लिश एक बाक़ी रहा है तो रंग-ए-तपिश
दिल सुबुक और सादा है इस तौर से क़र्ज़ जितने थे गोया अदा हो गए

ग़म सँवरते रहे हम सँभलते रहे शौक़ मंज़िल के शेवे बदलते रहे
थे जो नज़दीक हम से वो अब दूर हैं थे जो ना-आश्ना आश्ना हो गए