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जितना पाता हूँ गँवा देता हूँ | शाही शायरी
jitna pata hun ganwa deta hun

ग़ज़ल

जितना पाता हूँ गँवा देता हूँ

रउफ़ रज़ा

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जितना पाता हूँ गँवा देता हूँ
फिर उसी दर पे सदा देता हूँ

ख़त्म होता नहीं फूलों का सफ़र
रोज़ इक शाख़ हिला देता हूँ

होश में याद नहीं रहते हैं ख़त
बे-ख़याली में जला देता हूँ

सब से लड़ लेता हूँ अंदर अंदर
जिस को जी चाहे हरा देता हूँ

कुछ नया बाक़ी नहीं है मुझ में
ख़ुद को समझा के सुला देता हूँ