जितना दिखता हूँ मुझे उस से ज़ियादा न समझ
इस ज़मीं का हूँ मुझे कोई फ़रिश्ता न समझ
ये तिरी आँख के धोके के सिवा कुछ भी नहीं
एक बहते हुए दरिया को किनारा न समझ
छोड़ जाएगा तिरा साथ अँधेरे में यही
ये जो साया है तिरा इस को भी अपना न समझ
जिन किताबों ने अंधेरों के सिवा कुछ न दिया
उन किताबों के उजालों को उजाला न समझ
ये जो बिफरा तो डुबोएगा सफ़ीने कितने
तू इसे आँख से टपका हुआ क़तरा न समझ
वो तुझे बाँटने आया है कई टुकड़ों में
मुस्कुराते हुए शैताँ को मसीहा न समझ
तुझ से ही माँग रहा है वो तो ख़ुद अपना वजूद
ख़ुद जो साइल है उसे कोई ख़लीफ़ा न समझ
है तिरे साथ अगर तेरे इरादों का जुनून
क़ाफ़िला है तू कभी ख़ुद को अकेला न समझ
साथ हैं मेरे बुज़ुर्गों की दुआएँ इतनी
मैं हूँ महफ़िल तू मुझे पल को भी तन्हा न समझ

ग़ज़ल
जितना दिखता हूँ मुझे उस से ज़ियादा न समझ
द्विजेंद्र द्विज