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जिस्मों की मेहराब में रहना पड़ता है | शाही शायरी
jismon ki mehrab mein rahna paDta hai

ग़ज़ल

जिस्मों की मेहराब में रहना पड़ता है

रियाज़ लतीफ़

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जिस्मों की मेहराब में रहना पड़ता है
एक मुसलसल ख़्वाब में रहना पड़ता है

अपनी गहराई भी नाप नहीं सकते
और हमें पायाब में रहना पड़ता है

रूहों पर मल कर दुनिया के सन्नाटे
आवाज़ों के बाब में रहना पड़ता है

उमडा रहता है जो तेरी आँखों में
ऐसे भी सैलाब में रहना पड़ता है

अंगड़ाई लेते हैं मुझ में सात फ़लक
आफ़ाक़ी गिर्दाब में रहना पड़ता है

जनम निकल जाते हैं ख़ुद से मिलने में
एक सफ़र नायाब में रहना पड़ता है