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जिस्मों की चढ़ती धूप का जब क़हर उतर गया | शाही शायरी
jismon ki chaDhti dhup ka jab qahr utar gaya

ग़ज़ल

जिस्मों की चढ़ती धूप का जब क़हर उतर गया

मुसव्विर सब्ज़वारी

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जिस्मों की चढ़ती धूप का जब क़हर उतर गया
इक शो'ला डूबने को सर-ए-नहर उतर गया

फिर याद आ गई है तिरे आँसुओं की शाम
फिर आज ज़ेर-ए-आब कोई शहर उतर गया

अब डस रहा है मुझ को मिरा खोखला बदन
सावन की बिजलियों से मिरा ज़हर उतर गया

हम मौज-ए-तह-नशीं थे तुझे छू नहीं सके
तू बर्ग-ए-सत्ह-ए-आब था हर लहर उतर गया

अब रू-कश-ए-जमाल 'मुसव्विर' नहीं कोई
चेहरा-ब-चेहरा अक्स-ए-रुख़-ए-दहर उतर गया