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जिस्म-ए-बे-सर कोई बिस्मिल कोई फ़रियादी था | शाही शायरी
jism-e-be-sar koi bismil koi fariyaadi tha

ग़ज़ल

जिस्म-ए-बे-सर कोई बिस्मिल कोई फ़रियादी था

सय्यद जहीरुद्दीन ज़हीर

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जिस्म-ए-बे-सर कोई बिस्मिल कोई फ़रियादी था
हश्र-सामानियाँ थीं मंज़िल-ए-जानाँ के क़रीब

ज़ौ-फ़िशाँ शम्स था पर उस को ख़जिल होना पड़ा
उन का हुस्न आ गया जब मेहर-ए-दरख़्शाँ के क़रीब

अश्क बन बन के जो चमका था उफ़ुक़ पर बरसों
वो सितारा नज़र आया तिरे मिज़्गाँ के क़रीब

ताएर-ए-रूह ने पर्वाज़ की देख ऐ सय्याद
तू गया ले के क़फ़स जब दर-ए-ज़िंदाँ के क़रीब

मैं तो समझा था नशेमन भी जला ख़ैर हुई
बर्क़ जब कौंद के आई थी गुलिस्ताँ के क़रीब

आतिश-ए-इश्क़ बुझाए न बुझी ता-ब-लहद
भड़की दामन से तो पहुँची ये गरेबाँ के क़रीब

बू-ए-गुल दौड़ के सदक़े हुई गेसू पे 'ज़हीर'
आप आए जो किसी दिन चमनिस्ताँ के क़रीब