जिस्म अपना है कोई और न साया अपना
जाने इस ज़ीस्त से है कौन सा रिश्ता अपना
तू ने किस मोड़ पे छोड़ा था मुझे उम्र-ए-रवाँ
तक रहा हूँ कई सदियों से मैं रस्ता अपना
संग-अंदाज़ हुआ शहर-ए-सितम-पेशा तमाम
दिल लिए बैठा है शीशे का घरौंदा अपना
हम रहे भी तो बदलते हुए मौसम की तरह
तेरी आँखों में कोई अक्स न ठहरा अपना
जोग ले कर तिरी ख़ातिर लिए गलियों गलियों
इक मुग़न्नी की तरह दर्द भी बेचा अपना
एक बे-नाम तअ'ल्लुक़ भी अब उस घर से नहीं
मुद्दतों जिस में रहा था कभी चर्चा अपना
इक तिरा ग़म था ब-हर-रंग जो शादाब रहा
इस शजर ने न गिराया कोई पत्ता अपना
दिल की दीवारों पे ये रंग-ए-शब-ए-तार तो देख
हादिसा छोड़ गया है कोई साया अपना
ऐ ग़म-ए-ख़ाक-शुदा जाग ब-रंग-ए-अशआ'र
तेरी मिट्टी में मिलाता हूँ मैं सोना अपना
कितने असनाम तराशे हैं तिरी सूरत के
झाँक कर देखे ज़रा मुझ में सरापा अपना
ग़ज़ल
जिस्म अपना है कोई और न साया अपना
मुसव्विर सब्ज़वारी