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जिसे लिख लिख के ख़ुद भी रो पड़ा हूँ | शाही शायरी
jise likh likh ke KHud bhi ro paDa hun

ग़ज़ल

जिसे लिख लिख के ख़ुद भी रो पड़ा हूँ

सहबा अख़्तर

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जिसे लिख लिख के ख़ुद भी रो पड़ा हूँ
मैं अपनी रूह का वो मर्सिया हूँ

मिरी तन्हाइयों को कौन समझे
मैं साया हूँ मगर ख़ुद से जुदा हूँ

समझता हूँ नवा की शोलगी को
सुकूत-ए-हर्फ़ से लम्स-ए-आश्ना हूँ

कोई सूरज है फ़न का तो मुझे क्या
मैं अपनी रौशनी में सोचता हूँ

मिरा सहरा है मेरी ख़ुद-शनासी
मैं अपनी ख़ामुशी में गूँजता हूँ

किसी से क्या मिलूँ अपना समझ कर
मैं अपने वास्ते भी ना-रसा हूँ