जिस वक़्त तू बे-नक़ाब आवे
होगा कोई जिस को ताब आवे
काफ़ी है नक़ाब-ए-ज़ुल्फ़ मुँह पर
आशिक़ से अगर हिजाब आवे
क्यूँकर कहे कोई हाल तुझ से
हर बात में जो इताब आवे
क़ासिद से कहा है वक़्त-ए-रुख़्सत
जो वो बुत-ए-बे-हिजाब आवे
ले आइयो गर जवाब देवे
लाज़िम है कि तू शिताब आवे
ऐ जाँ-ब-लब रसीदा इतना
रहना है कि ता जवाब आवे
'बेदार' को तुझ बिन ऐ दिल-आराम
होता ही नहीं कि ख़्वाब आवे
ग़ज़ल
जिस वक़्त तू बे-नक़ाब आवे
मीर मोहम्मदी बेदार