जिस तयक़्क़ुन से जो लिखना था नहीं लिक्खा गया
आसमाँ काट के मिट्टी पे ज़मीं लिक्खा गया
मेरी पेशानी दमकती है सितारों से सिवा
तेरे हाथों से जहाँ हर्फ़-ए-यक़ीं लिक्खा गया
मौज-दर-मौज समुंदर से मुलाक़ात हुई
ख़्वाब को ख़्वाब सर-ए-सत्ह-ए-ज़मीं लिखा गया
अक्स-दर-अक्स जो लिखना था मुझे उस का जमाल
आइना-ख़ाना-ए-हैरत के तईं लिक्खा गया
देख कर उस को मिरे होश ठिकाने न रहे
इस्म लिखना था कहीं और कहीं लिक्खा गया
हाँ उठाया था क़लम कर्बला वालों के लिए
लिखना चाहा था मगर मुझ से नहीं लिक्खा गया
दोनों सरमस्त हैं एहसास-ए-सुख़न-साज़ी में
रौशनी आँख को और दिल को हज़ीं लिक्खा गया
यूँ तो सफ़्हात सियह करता रहा मैं 'अज़हर'
चाहता था जो मिरा शौक़ नहीं लिक्खा गया
ग़ज़ल
जिस तयक़्क़ुन से जो लिखना था नहीं लिक्खा गया
महमूद अज़हर