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जिस तरह धूप का रंगत पे असर पड़ता है | शाही शायरी
jis tarah dhup ka rangat pe asar paDta hai

ग़ज़ल

जिस तरह धूप का रंगत पे असर पड़ता है

मोहसिन आफ़ताब केलापुरी

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जिस तरह धूप का रंगत पे असर पड़ता है
नफ़्स का वैसे इबादत पे असर पड़ता है

ऐसे मुझ पर भी तिरे ग़म के निशाँ दिखते हैं
जैसे मौसम का इमारत पे असर पड़ता है

सिर्फ़ माहौल से फ़िक्रें नहीं बदला करतीं
दोस्तों का भी तबीअ'त पे असर पड़ता है

दुश्मनों से ही नहीं होता है ख़तरा लाहिक़
बाग़ियों से भी हुकूमत पे असर पड़ता है

अब समझ आया सबब मुझ को मिरी पस्ती का
माँग घटती है तो क़ीमत पे असर पड़ता है

भूक नेकी की लगे या कि लगे दुनिया की
भूक लगती है तो सूरत पे असर पड़ता है

रिज़्क़ रुकता है नमाज़ों के क़ज़ा करने से
निय्यतें बद हों तो बरकत पे असर पड़ता है

साफ़ दिखती है बुढ़ापे में क़ज़ा सच तो है
उम्र के साथ बसीरत पे असर पड़ता है

पास रहने से ही बढ़ती नहीं चाहत 'मोहसिन'
फ़ासलों से भी मोहब्बत पे असर पड़ता है