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जिस तरह बदला हूँ मैं बदलेगी क्या | शाही शायरी
jis tarah badla hun main badlegi kya

ग़ज़ल

जिस तरह बदला हूँ मैं बदलेगी क्या

मंज़र सलीम

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जिस तरह बदला हूँ मैं बदलेगी क्या
मेरी बस्ती मुझ को पहचानेगी क्या

ज़ख़्म-ए-सर है आप अपनी दास्तान
पत्थरों से ज़िंदगी पूछेगी क्या

तीरगी ने मस्ख़ कर दीं सूरतें
आने वाली रौशनी देखेगी क्या

ज़ेहन में रुकने नहीं पाते ख़याल
जिस्म के ऊपर क़बा ठहरेगी क्या

मैं तो जाँ देते हुए भी हँस पड़ूँ
तल्ख़ी-ए-ज़हराब ग़म सोचेगी क्या

धूप ऐसी है कि दरिया सूख जाएँ
ख़ून के छींटों से रुत बदलेगी क्या

जी रहा हूँ दूसरों के जिस्म में
मौत जीने से मुझे रोकेगी क्या