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जिस तरफ़ जाऊँ उधर आलम-ए-तन्हाई है | शाही शायरी
jis taraf jaun udhar aalam-e-tanhai hai

ग़ज़ल

जिस तरफ़ जाऊँ उधर आलम-ए-तन्हाई है

शाज़ तमकनत

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जिस तरफ़ जाऊँ उधर आलम-ए-तन्हाई है
जितना चाहा था तुझे उतनी सज़ा पाई है

में जिसे देखना चाहूँ वो नज़र न आ सके
हाए इन आँखों पे क्यूँ तोहमत-ए-बीनाई है

बारहा सर-कशी ओ कज-कुलही के बा-वस्फ़
तेरे दर पर मुझे दरयूज़ा-गरी लाई है

सदमा-ए-हिज्र में तू भी है बराबर का शरीक
ये अलग बात तुझे ताब-ए-शकेबाई है

भूलने वाले ने शायद ये न सोचा होगा
एक दो दिन नहीं बरसों की शनासाई है

जाम-ख़ुश-रंग तही है मुझे मा'लूम न था
अपनी टूटी हुई तौबा पे हँसी आई है

ये तवज्जोह भी तिरी हुस्न-ए-गुरेज़ाँ की तरह
ये तग़ाफ़ुल भी मिरी हौसला-अफ़ज़ाई है

तेरा लहजा है कि सन्नाटे ने आँखें खोलीं
तेरी आवाज़ कलीद-ए-दर-ए-तन्हाई है

'शाज़' पूछो कि ये आँखों का धुँदलका कब तक
रात आई नहीं या नींद नहीं आई है