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जिस सूरज की आस लगी है शायद वो भी आए | शाही शायरी
jis suraj ki aas lagi hai shayad wo bhi aae

ग़ज़ल

जिस सूरज की आस लगी है शायद वो भी आए

जमीलुद्दीन आली

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जिस सूरज की आस लगी है शायद वो भी आए
तुम ये कहो ख़ुद तुम ने अब तक कितने दिए जलाए

अपना काम है सिर्फ़ मोहब्बत बाक़ी उस का काम
जब चाहे वो रूठे हम से जब चाहे मन जाए

क्या क्या रोग लगे हैं दिल को क्या क्या उन के भेद
हम सब को समझाने वाले कौन हमें समझाए

एक इसी उम्मीद पे हैं सब दुश्मन दोस्त क़ुबूल
क्या जाने इस सादा-रवी में कौन कहाँ मिल जाए

दुनिया वाले सब सच्चे पर जीना है इस को भी
एक ग़रीब अकेला पापी किस किस से शरमाए

इतना भी मजबूर न करना वर्ना हम कह देंगे
ओ 'आली' पर हँसने वाले तू आली बन जाए