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जिस क़दर शिकवे थे सब हर्फ़-ए-दुआ होने लगे | शाही शायरी
jis qadar shikwe the sab harf-e-dua hone lage

ग़ज़ल

जिस क़दर शिकवे थे सब हर्फ़-ए-दुआ होने लगे

सरवर आलम राज़

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जिस क़दर शिकवे थे सब हर्फ़-ए-दुआ होने लगे
हम किसी की आरज़ू में क्या से क्या होने लगे

बेकसी ने बे-ज़बानी को ज़बाँ क्या बख़्श दी
जो न कह सकते थे अश्कों से अदा होने लगे

हम ज़माने की सुख़न-फ़हमी का शिकवा क्या करें
जब ज़रा सी बात पर तुम भी ख़फ़ा होने लगे

रंग-ए-महफ़िल देख कर दुनिया ने नज़रें फेर लीं
आश्ना जितने भी थे ना-आश्ना होने लगे

हर क़दम पर मंज़िलें कुछ दूर यूँ होती गईं
राज़-हा-ए-ज़िंदगानी हम पे वा होने लगे

सर-बुरीदा ख़स्ता-सामाँ दिल-शिकस्ता जाँ-ब-लब
आशिक़ी में सुर्ख़-रू नाम-ए-ख़ुदा होने लगे

आगही ने जब दिखाई राह-ए-इरफ़ान-ए-हबीब
बुत थे जितने दिल में सब क़िबला-नुमा होने लगे

आशिक़ी की ख़ैर हो 'सरवर' कि अब इस शहर में
वक़्त वो आया है बंदे भी ख़ुदा होने लगे