जिस क़दर क़ल्ब की तस्कीन के सामाँ होंगे
कर्ब अफ़ज़ा-ए-सुकून-ए-ग़म-ए-हिज्राँ होंगे
अर्सा-ए-हश्र में जो इश्क़ का उनवाँ होंगे
मेरी ही ख़ाक के अज्ज़ा-ए-परेशाँ होंगे
अश्क मा'सूम जो ख़मयाज़ा-ए-इस्याँ होंगे
वो भी मिंजुम्ला-ए-सर्माया-ए-ईमाँ होंगे
मेरे अरमाँ तो न मिन्नत-कश-ए-जानाँ होंगे
दिल से निकलेंगे तो वो ग़ैर के अरमाँ होंगे
कहने-सुनने से वो तकलीफ़-ए-अयादत न करें
ईसी-ए-वक़्त हैं आ कर भी पशेमाँ होंगे
दिल में रह रह के खटकते जो हैं काँटों की तरह
ग़ालिबन आप के खोए हुए पैकाँ होंगे
हासिल-इश्क़-ओ-मोहब्बत ग़म-ए-हिज्राँ न सही
वो किसी शोख़ के भूले हुए पैमाँ होंगे
लाख आज़ाद सही हज़रत-'तालिब' लेकिन
आप भी क़ाइल-ए-मजबूरी-ए-इंसाँ होंगे
ग़ज़ल
जिस क़दर क़ल्ब की तस्कीन के सामाँ होंगे
तालिब बाग़पती