जिस ने तुझ हुस्न पर निगाह किया
नूर-ए-ख़ुर्शीद फ़र्श-ए-राह किया
हक़ ने अपने करम सती मुज कूँ
मुल्क-ए-ख़ूबी का पादशाह किया
मश्क़-ए-ग़फ़लत से तीरा-बातिन ने
सफ़्हा-ए-ज़िंदगी सियाह किया
हौज़-ए-कौसर का तिश्ना-लब कब है
इस ज़नख़दाँ की जिस ने चाह किया
कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में गया जब दिल
बर्ग-ए-सुम्बुल कूँ ज़ाद-ए-राह किया
बर्क़-ए-ख़िर्मन है जान-ए-दुश्मन का
दर्द सीं जिस ने एक आह किया
मत जला अब 'सिराज' कूँ ज़ालिम
शोला-ए-ग़म कूँ उज़्र-ख़्वाह किया
ग़ज़ल
जिस ने तुझ हुस्न पर निगाह किया
सिराज औरंगाबादी