जिस ने तिरी आँखों में शरारत नहीं देखी
वो लाख कहे उस ने मोहब्बत नहीं देखी
इक रूप मिरे ख़्वाब में लहरा सा गया था
फिर दिल में कोई चीज़ सलामत नहीं देखी
आईना तुझे देख के गुलनार हुआ था
शायद तिरी आँखों ने वो रंगत नहीं देखी
यूँ नक़्श हुआ आँख की पुतली पे वो चेहरा
फिर हम ने किसी और की सूरत नहीं देखी
ख़ैरात किया वो भी जो मौजूद नहीं था
तू ने तही-दस्तों की सख़ावत नहीं देखी
सद-शुक्र गुज़ारी है क़यामत तन-ए-तन्हा
उस रात किसी ने मिरी हालत नहीं देखी
क्या तुझ से कहें कैसे कटी कैसे कटेगी
अच्छा है कि तू ने ये मुसीबत नहीं देखी
शायद इसी बाइस वो फ़िरोज़ाँ है अभी तक
सूरज ने कभी रात की ज़ुल्मत नहीं देखी
सब की तरह तू ने भी मिरे ऐब निकाले
तू ने भी ख़ुदाया मिरी निय्यत नहीं देखी
तिनका हूँ मगर सैल के रस्ते में खड़ा हूँ
ऐ भागने वालो मिरी हिम्मत नहीं देखी
जो ठान लिया दिल में वो कर गुज़रा हूँ 'शहज़ाद'
आई हुई सर पर कोई आफ़त नहीं देखी
ग़ज़ल
जिस ने तिरी आँखों में शरारत नहीं देखी
शहज़ाद अहमद