जिस को समझे थे तवंगर वो गदागर निकला
ज़र्फ़ में कासा--दरवेश समुंदर निकला
कभी दरवेश के तकिया में भी आ कर देखो
तंग-दस्ती में भी आराम मयस्सर निकला
मुश्किलें आती हैं आने दो गुज़र जाएँगी
लोग ये देखें कि कमज़ोर दिलावर निकला
जब गिरफ़्तों से भी आगे हो पहुँच मुट्ठी की
तब लगेगा कि समुंदर में शनावर निकला
कोई मौहूम सा चेहरा जो बुलाता है हमें
बादलों की तरह शक्लें वो बदल कर निकला
दिल अजब चीज़ है किस मिट्टी में जा कर बोएँ
जड़ यूँ पकड़े कि लगे पेड़ तनावर निकला
लाश क़ातिल ने खुली फेंक दी चौराहे पर
देखने वाला कोई घर से न बाहर निकला
देखने में तो धनक चंद ही लम्हे थी 'अनीस'
सात रंगों का मगर दीदनी मंज़र निकला
ग़ज़ल
जिस को समझे थे तवंगर वो गदागर निकला
अनीस अंसारी