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जिस को सब कहते हैं समुंदर है | शाही शायरी
jis ko sab kahte hain samundar hai

ग़ज़ल

जिस को सब कहते हैं समुंदर है

मर्दान अली खां राना

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जिस को सब कहते हैं समुंदर है
क़तरा-ए-अश्क-ए-दीदा-ए-तर है

अबरू-ए-यार दिल का ख़ंजर है
मिज़ा-ए-यार नोक-ए-नश्तर है

चश्म-ए-आशिक़ से दो बहे दरिया
एक तसनीम एक कौसर है

ख़ाना-ए-दिल है ग़ैर से ख़ाली
शौक़ से आओ आपका घर है

क़तई आज फ़ैसला होगा
तेरी तलवार है मिरा सर है

अब तो धूनी रमा के बैठे हैं
दर-ए-जानाँ पे अपना बिस्तर है

तमअ' हर इक का दीन-ओ-ईमाँ है
जिस को देखो वो बंदा-ए-ज़र है

ख़ूब दिल खोल कर जफ़ा कर लो
बंदा मुद्दत से इस का ख़ूगर है

बाम पर जल्वा-गर है वो शायद
कू-ए-जानाँ में शोर-ए-महशर है

करता आलम को आह से बरहम
लेक 'रा'ना' को यार का डर है