जिस को कुछ धन हो करे हम से हक़ीक़त की बहस
कि हमीं जानते हैं अहल-ए-तरीक़त की बहस
क़ाज़िया हाथ बढ़ा शीशा-ए-सहबा तो उतार
ताक़-ए-निस्याँ पे तू रहने दे शरीअत की बहस
कर दिया मुज्तहिद-ए-वक़्त को क़ातिल झट-पट
हम ने मस्जिद में कल ऐसे ही क़यामत की बहस
बज़्म-ए-रिंदाना में क्या रिंद-ओ-वर'अ का चर्चा
शैख़-साहिब है बहुत ये तो हिमाक़त की बहस
बू-अली साथ कोई बोलते 'इंशा' को सुने
रोज़ होती है बहम अहल-ए-बलाग़त की बहस
ग़ज़ल
जिस को कुछ धन हो करे हम से हक़ीक़त की बहस
इंशा अल्लाह ख़ान