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जिस को ख़बर नहीं उसे जोश-ओ-ख़रोश है | शाही शायरी
jis ko KHabar nahin use josh-o-KHarosh hai

ग़ज़ल

जिस को ख़बर नहीं उसे जोश-ओ-ख़रोश है

दत्तात्रिया कैफ़ी

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जिस को ख़बर नहीं उसे जोश-ओ-ख़रोश है
जो पा गया वो राज़ वो गुम है ख़मोश है

है एक शोर-ए-बुलबुल-ओ-सौत-ए-शगुफ़्ता-गुल
ये सूर-ए-आफ़ियत है वो यासीन-ए-होश है

आई थी शक्ल दिल के जो आइना में नज़र
बंद आँख इस से और ज़बाँ भी ख़मोश है

ये हाल हो कि आप में आलम को देख ले
गर दिल में तेरे इश्क़ की कसरत का जोश है

कब है कमाल-ए-इश्क़ पे हावी ग़म-ए-फ़िराक़
एक एक ज़र्रा क़ैस को महमिल ब-दोश है

वारफ़्ता-ए-हवा-ए-तरब याद रख उसे
जो दर्द की खटक है नवेद-ए-सरोश है

बर्क़-ए-जमाल नाफ़ा-ए-मा-ओ-शुमा हुई
क्या ज़िक्र-ए-शम-ए-तूर कि वो भी ख़मोश है

क्या है तिरा हुदूस-ओ-क़िदम हम तो हैं वहाँ
हस्ती जहाँ अदम के लिए ख़्वाब-नोश है

उश्शाक़ जामा पहने हैं तस्लीम-ए-इश्क़ का
दस्तार-ओ-जुब्बा शैख़ का हाँ पर्दा-पोश है

तेरे जहाँ से महफ़िल-ए-रिंदाँ जुदा है शैख़
हर एक मुग़बचा यहाँ कस्र-ए-फ़रोश है

साक़ी की एक नज़र ही हमें मस्त कर गई
किस को सुराही-ओ-ख़म-ओ-साग़र का होश है

अमृत के झाले मर किया ला-तक़्नतू की हैं
इस बज़्म में ये मश्ग़ला-ए-नाओ-नोश है

'कैफ़ी' ये अहल-ए-दहर से कह दो पुकार कर
इस बज़्म में वो आए कि जो सरफ़रोश है