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जिस को देखो वो गिरफ़्तार-ए-बला लगता है | शाही शायरी
jis ko dekho wo giraftar-e-bala lagta hai

ग़ज़ल

जिस को देखो वो गिरफ़्तार-ए-बला लगता है

अतीक़ मुज़फ़्फ़रपुरी

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जिस को देखो वो गिरफ़्तार-ए-बला लगता है
शहर का शहर ही आसेब-ज़दा लगता है

मछलियाँ सारी समुंदर की लरज़ उठती हैं
कोई तिनका भी अगर तिनके से जा लगता है

ख़ुद को दुनिया से हुनर-मंद समझने वालो
घर से निकलो तो हक़ीक़त का पता लगता है

दोस्ती प्यार वफ़ा साथ निभाने की क़सम
हर अमल उस का बनावट से भरा लगता है

घर के माहौल में इस दर्जा तअफ़्फ़ुन है 'अतीक़'
साँस लेना भी यहाँ अब तो सज़ा लगता है