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जिस को देखो वही पैकार में उलझा हुआ है | शाही शायरी
jis ko dekho wahi paikar mein uljha hua hai

ग़ज़ल

जिस को देखो वही पैकार में उलझा हुआ है

ख़ुर्शीद तलब

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जिस को देखो वही पैकार में उलझा हुआ है
हर गरेबान किसी तार में उलझा हुआ है

दश्त बेचैन है वहशत की पज़ीराई को
दिल-ए-वहशी दर-ओ-दीवार में उलझा हुआ है

जंग दस्तक लिए आ पहुँची है दरवाज़े तक
शाहज़ादा लब-ओ-रुख़्सार में उलझा हुआ है

इक हिकायत लब-ए-इज़हार पे है सोख़्ता-जाँ
एक क़िस्सा अभी किरदार में उलझा हुआ है

सर की क़ीमत मुझे मालूम नहीं है लेकिन
आसमाँ तक मिरी दस्तार में उलझा हुआ है

आइए बीच की दीवार गिरा देते हैं
कब से इक मसअला बे-कार में उलझा हुआ है