जिस को चलना है चले रख़्त-ए-सफ़र बाँधे हुए
हम जहाँ-गश्त हैं उट्ठे हैं कमर बाँधे हुए
यूँ तो हर गाम कई दाम हैं दश्त-ए-शब में
हम भी आए हैं पर-ओ-बाल-ए-सहर बाँधे हुए
सू-ए-अफ़्लाक सफ़ीरान-ए-दुआ जाए हैं
डर है लौट आएँ न ज़ंजीर-ए-असर बाँधे हुए
अहल-ए-ज़िंदाँ हैं अभी मुंतज़िर-ए-फ़स्ल-ए-बहार
शाख़-ए-फ़र्दा से ख़याल-ए-गुल-ए-तर बाँधे हुए
दश्त-ए-इम्काँ में कोई साथ मिरा दे न सका
कितने रहबर मिले दस्तार-ए-ख़िज़र बाँधे हुए
कोई आग़ोश कुशादा है न वा कोई नज़र
या'नी जो दर है कोई पर्दा-ए-दर बाँधे हुए
बुझ गई शम्अ' नज़र मुँद गईं शब की आँखें
सुब्ह अब आई है पुश्तारा-ए-ज़र बाँधे हुए
हम 'तमन्नाई' जहान-ए-गुज़राँ की रौ में
सू-ए-शबनम चले उम्मीद-ए-शरर बाँधे हुए
ग़ज़ल
जिस को चलना है चले रख़्त-ए-सफ़र बाँधे हुए
अज़ीज़ तमन्नाई