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जिस को चाहो तुम उस को भर दो | शाही शायरी
jis ko chaho tum usko bhar do

ग़ज़ल

जिस को चाहो तुम उस को भर दो

इमदाद अली बहर

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जिस को चाहो तुम उस को भर दो
माह को नुक़रा मेहर को ज़र दो

पीर-ए-मुग़ाँ से अर्ज़ ये कर दो
दक्खिन बख़्शो अगर साग़र दो

आह ये दोनों आफ़त-ए-जाँ हैं
नाज़-ओ-अदा ला'नत बर हर दो

जी जलता है आह के झोंको
शम-ए-मोहब्बत को गुल कर दो

क़तरा-फ़िशानी क्या ऐ आँखो
ऐसे बरसो जल-थल भर दो

बुलबुलो सय्याद आज ख़फ़ा है
हल्क़ छुरी के नीचे धर दो

जान उन आँखों से न बचेगी
ये है इधर तन्हा वो उधर दो

दम की आमद-ओ-शुद क्या कहिए
ज़ोफ़ की राह से हैं ये सफ़र दो

अपना गला ख़ुद काटते हैं हम
दम लो छुरी की तले बे-दर्दो

जान-ओ-माल फ़िदा करने में
फ़िक्र-ओ-तरद्दुद ऐ ना-मर्दो

अर्ज़ ये है नक़्काश-ए-अज़ल से
हुब के नक़्श में यार को घर दो

दौलत-ए-दिल तुम तो हाज़िर है
ख़त्त-ए-एज़ार तमस्सुक कर दो

शुक्र-गुज़ार ब-हर-सूरत हैं
ज़हर हमें दो या शक्कर दो

आँखों में है मवाद-ए-गिरया
'बहर' इन फोड़ों को नश्तर दो