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जिस की सौंधी सौंधी ख़ुशबू आँगन आँगन पलती थी | शाही शायरी
jis ki saundhi saundhi KHushbu aangan aangan palti thi

ग़ज़ल

जिस की सौंधी सौंधी ख़ुशबू आँगन आँगन पलती थी

हम्माद नियाज़ी

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जिस की सौंधी सौंधी ख़ुशबू आँगन आँगन पलती थी
उस मिट्टी का बोझ उठाते जिस्म की मिट्टी गलती थी

जिस को ताप के गर्म लिहाफ़ों में बच्चे सो जाते थे
दिल के चूल्हे में हर दम वो आग बराबर जलती थी

गर्म दो-पहरों में जलते सेहनों में झाड़ू देते थे
जिन बूढ़े हाथों से पक कर रोटी फूल में ढलती थी

किसी कहानी में वीरानी में जब दिल घबराता था
किसी अज़ीज़ दुआ की ख़ुशबू साथ हमारे चलती थी

गर्द उड़ाते ज़र्द बगूले दर पर दस्तक देते थे
और ख़स्ता-दीवारों की पल भर में शक्ल बदलती थी

ख़ुश्क खजूर के पत्तों से जब नींद का बिस्तर सजता था
ख़्वाब-नगर की शहज़ादी गलियों में आन निकलती थी

दिन आता था और सीने में शाम का ख़ाका बनता था
शाम आती थी और जिस्मों में शाम भी आख़िर ढलती थी