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जिस का इंकार भी इंकार न समझा जाए | शाही शायरी
jis ka inkar bhi inkar na samjha jae

ग़ज़ल

जिस का इंकार भी इंकार न समझा जाए

सलीम अहमद

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जिस का इंकार भी इंकार न समझा जाए
हम से वो यार-ए-तरह-दार न समझा जाए

इतनी काविश भी न कर मेरी असीरी के लिए
तू कहीं मेरा गिरफ़्तार न समझा जाए

अब जो ठहरी है मुलाक़ात तो इस शर्त के साथ
शौक़ को दर-ख़ुर-ए-इज़हार न समझा जाए

नाला बुलबुल का जो सुनता है तो खिल उठता है गुल
इश्क़ को मुफ़्त की बेगार न समझा जाए

इश्क़ को शाद करे ग़म का मुक़द्दर बदले
हुस्न को इतना भी मुख़्तार न समझा जाए

बढ़ चला आज बहुत हद से जुनून-ए-गुस्ताख़
अब कहीं उस से सर-ए-दार न समझा जाए

दिल के लेने से 'सलीम' उस को नहीं है इंकार
लेकिन इस तरह कि इक़रार न समझा जाए