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जिस ग़म से दिल को राहत हो उस ग़म का मुदावा क्या मा'नी | शाही शायरी
jis gham se dil ko rahat ho us gham ka mudawa kya mani

ग़ज़ल

जिस ग़म से दिल को राहत हो उस ग़म का मुदावा क्या मा'नी

अर्श मलसियानी

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जिस ग़म से दिल को राहत हो उस ग़म का मुदावा क्या मा'नी
जब फ़ितरत तूफ़ानी ठहरी साहिल की तमन्ना क्या मा'नी

इशरत में रंज की आमेज़िश राहत में अलम की आलाइश
जब दुनिया ऐसी दुनिया है फिर दुनिया दुनिया क्या मा'नी

ख़ुद शैख़-ओ-बरहमन मुजरिम हैं इक काम से दोनों पी न सके
साक़ी की बुख़्ल-पसंदी पर साक़ी का शिकवा क्या मा'नी

जल्वों का तो ये दस्तूर नहीं पर्दों से कभी बाहर आएँ
ऐ दीदा-ए-बे-तौफ़ीक़ तिरा ये ज़ौक़-ए-तमाशा क्या मा'नी

इख़लास-ओ-वफ़ा के सज्दों की जिस दर पर दाद नहीं मिलती
ऐ ग़ैरत-ए-दिल ऐ अज़्म-ए-ख़ुदी उस दर पर सज्दा क्या मा'नी

ऐ साहिब-ए-नक़्द-ओ-नज़र माना इंसाँ का निज़ाम नहीं अच्छा
इस की इस्लाह के पर्दे में अल्लाह से झगड़ा क्या मा'नी

हर-लहज़ा फ़ुज़ूँ हो जोश-ए-अमल ये फ़र्ज़ है फ़र्ज़ की राह पे चल
तदबीर का ये रोना कैसा तक़दीर का शिकवा क्या मा'नी

मयख़ाने में तू ऐ वाइ'ज़ अब तल्क़ीन के कुछ उस्लूब बदल
अल्लाह का बंदा बनने को जन्नत का सहारा क्या मा'नी

इज़हार-ए-वफ़ा लाज़िम ही सही ऐ 'अर्श' मगर फ़रियादें क्यूँ
वो बात जो सब पर ज़ाहिर है उस बात का चर्चा क्या मा'नी