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जिस दम ये सुना है सुब्ह-ए-वतन महबूस फ़ज़ा-ए-ज़िंदाँ में | शाही शायरी
jis dam ye suna hai subh-e-watan mahbus faza-e-zindan mein

ग़ज़ल

जिस दम ये सुना है सुब्ह-ए-वतन महबूस फ़ज़ा-ए-ज़िंदाँ में

मजरूह सुल्तानपुरी

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जिस दम ये सुना है सुब्ह-ए-वतन महबूस फ़ज़ा-ए-ज़िंदाँ में
जैसे कि सबा ऐ हम-क़फ़सो बेताब हम आए ज़िंदाँ में

हो तेग़-ए-असर ज़ंजीर-ए-क़दम फिर भी हैं नक़ीब-ए-मंज़िल हम
ज़ख़्मों से चराग़-ए-राहगुज़र बैठे हैं जलाए ज़िंदाँ में

सद-चाक क़बा-ए-अम्न-ओ-सुकूँ उर्यां है अहिंसाई का जुनूँ
कुछ ख़ूँ से शहीदों ने अपने वो गुल हैं खिलाए ज़िंदाँ में

ये जब्र-ए-सियासत ये इंसाँ मज़लूम आहें मजबूर फ़ुग़ाँ
ज़ख़्मों की महक दाग़ों का धुआँ मत पूछ फ़ज़ा-ए-ज़िंदाँ में

ग़ैरों की ख़लिश अपनों की लगन सोज़-ए-ग़म-ए-जानाँ दर्द-ए-वतन
क्या कहिए कि हम हैं किस किस को सीने से लगाए ज़िंदाँ में

गुल बनती है शायद ख़ाक-ए-वतन शायद कि सफ़र करती है ख़िज़ाँ
ख़ुशबू-ए-बहाराँ मिलती है कुछ दिन से हवा-ए-ज़िंदाँ में

मुजरिम थे जो हम सो क़ैद हुए सय्याद मगर अब ये तो बता
हर वक़्त ये किस को ढूँडते हैं दीवार के साए ज़िंदाँ में

जिस्मों पे ये किस का नाम-ए-सियह लिख देते हैं कोड़ों के निशाँ
हैं ताक में किस की ज़ंजीरें अब आँख लगाए ज़िंदाँ में

रफ़्तार-ए-ज़माना लय जिन की गाती है गुल-ए-नग़्मा जिन का
हम गाते हैं उन आवाज़ों से आवाज़ मिलाए ज़िंदाँ में