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जिस दम तिरे कूचे से हम आन निकलते हैं | शाही शायरी
jis dam tere kuche se hum aan nikalte hain

ग़ज़ल

जिस दम तिरे कूचे से हम आन निकलते हैं

आसिफ़ुद्दौला

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जिस दम तिरे कूचे से हम आन निकलते हैं
हर गाम पे दहशत से बे-जान निकलते हैं

ये आन है ऐ यारो या नोक है बर्छी की
या सीने से तीरों के पैकान निकलते हैं

रिंदों ने कहीं उन की ख़िदमत मैं बे-अदबी की
जो शैख़ जी मज्लिस से सरसान निकलते हैं

ये तिफ़्ल-ए-सरिश्क अपने ऐसा हो मियाँ बहकें
बे-तरह ये अब घर से नादान निकलते हैं

ये ज़िद है जिन्हें यारो आ जाएँ जो मशहद पर
तो थाम के हाथों से दामान निकलते हैं

किस तरह ग़ुबार उन तक पहुँचेगा भला अपना
'आसिफ़' जो कभी घर से ख़ूबान निकलते हैं