जिस दम क़फ़स में मौसम-ए-गुल की ख़बर गई
इक बार क़ैदियों पे क़यामत गुज़र गई
धुँदला गए नुक़ूश तो साया सा बन गया
देखा किया मैं उन को जहाँ तक नज़र गई
बेहतर था मैं जो दूर से फूलों को देखता
छूने से पत्ती पत्ती हवा में बिखर गई
कितने ही लोग साहिब-ए-एहसास हो गए
इक बे-नवा की चीख़ बड़ा काम कर गई
तन्हाइयों के शहर में कौन आएगा 'शकेब'
सो जाओ अब तो रात भी आधी गुज़र गई
ग़ज़ल
जिस दम क़फ़स में मौसम-ए-गुल की ख़बर गई
शकेब जलाली