जिन ज़ख़्मों पर था नाज़ हमें वो ज़ख़्म भी भरते जाते हैं
साँसें हैं कि घटती जाती हैं दिन हैं कि गुज़रते जाते हैं
दीवार है गुम-सुम दर तन्हा फिर होते चले हैं शजर तन्हा
कुछ धूप सी ढलती जाती है कुछ साए उतरते जाते हैं
हम यूँही नहीं हैं सुस्त-क़दम हम जानते हैं फ़र्दा क्या है
शायद कोई दे आवाज़ हमें रह रह के ठहरते जाते हैं
आवाज़ वो शीशा-ए-नाज़ुक है मेहराब-ए-नज़र में रहने दे
क्यूँ फ़र्श समाअत पर गिर कर रेज़े ये बिखरते जाते हैं
रोएँ या हँसें इस हालत पर एहसास ये होता है अक्सर
वादा तो किसी से 'शाज़' न था हम हैं कि मुकरते जाते हैं
ग़ज़ल
जिन ज़ख़्मों पर था नाज़ हमें वो ज़ख़्म भी भरते जाते हैं
शाज़ तमकनत